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दुस्वप्न / ज्योत्स्ना मिश्रा
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मैंने रतजगे बीने हैं
उम्र से एक धागा चुराकर
माला पिरोऊँगी
यादें चुन ली हैं
कौड़ियों-सी रखूँगी
बिसात सजा कर उदासी की
चाँद की परछाईयाँ जब रक्स करेंगी,
सुबह के पानियों पर
हम साथ चलने का स्वप्न देखेंगें
और सोचेंगें
कि सूरज हमारे पोरो का इशारा भर है
उगने और ढलने के दरम्याँ दिन ठहरा रहेगा
कायनात के बीचों बीच एक दरिया दिखाई देगा
तुम्हें तैरना नहीं आता
तुम्हारे पाँव भीगते होंगें
मैं कश्ती बन जाऊँगी
तुम उतर कर मेरी ओर एक उदास नज़र डालना
और मेरे रतजगों के पार चले जाना।