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दुस्साहस / दिनेश कुमार शुक्ल

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लो सॅंभालो यह स्यमन्तक मणि
उदास हृदयाकाश से तोड़ लाया हूँ यह अन्तिम नक्षत्र
यह भोर का तारा
इसकी फीकी दीप्ति में
तुम कैसे पढ़ पाओगी मेरा लिखा
इस लिखावट में भरेगा तो वक़्त ही भरेगा अब
किन्हीं नये अर्थों की रोशनी

लो सॅंभालो यह स्यमन्तक मणि
खो न जाए ये कहीं
दिन की धूल में धीरे-धीरे मलिन होता चन्द्रमा,
चूँकि तुम्हारा ही दिया हुआ यह
कुलिश-कठोर सत्य जैसा स्वप्न
आग-सी यह अनिद्रा
श्वेत हिम-सा पराजय का जड़ निभृत एकान्त
यह सभी गोचर अगोचर
सब तुम्हारा ही दिया है
इसे ले जाना

जैसे जैसे धुँधले होते हैं प्रतिबिम्ब
संकेत जैसे जैसे होते हैं अस्पष्ट
अश्रव्य आहट पड़ती है कनपटी पर हथौड़े-सी
तब कहीं जाकर
आँखों में बनता है थोड़ा-सा जल
पीठ पर थोड़ी-सी पृथ्वी
आम और जामुन की गन्ध में तब कहीं जाकर
महकता है थोड़ा-सा प्रेम
भय को भेदकर
तब थरथराते हैं दो गुलाब
कॉंपते हैं दो पहाड़ आनन्द में
तुम्हारी देह के समुद्र में
पुनरूज्जीवित होते देखता हूँ
मर्मान्तक कथाओं के निरपराध मारे गये शिशुओं को

तुम्हारी ही आँखों की ज्योति में
पढ़ता हूँ प्रेम के र्चिी चन्द्रमा की रेत पर,
चट्टान जैसे पानी पर
सूर्य की बर्फ़ में पढ़ता हूँ मैं
तुम्हारी उॅंगलियों से लिखा अपना गुमनाम नाम
और
पानी में नमक-सा
घुलता चला जाता हूँ तुम्हारी ही आँखों में

तुम्हारे काव्य के असमाप्त अन्तिम बन्ध पर
सप्तपदी के अन्तिम पद पर
तुम्हारी वाणी का अन्तिम अकेला शब्द मैं
तुम्हारे मौन की वह गन्दुमी-सी गूँज भी मैं ही
कि जिसमें मूँदकर पलकें कभी तुम मुस्कराती हो
जगाती हो मुझे
उस गहन जलती-सी अनिद्रा से

लो तुम्हें वापस किया
वह सभी कुछ जो मिला था मुझे चारों दिशाओं से
देखो तो मेरा दुस्साहस
अपनी नश्वरता के बूते पर
अमर करना चाहता हूँ मैं तुम्हारा नाम
नीहारिकाओं को धारण करने वाली तुमको
दे रहा हूँ धुँधली-सी यह स्यमन्तक मणि
प्रमाण की तरह
एक बुझे हुए सूर्य की स्मृति में....