दुहाई है! ऐ जिस्म से खेलने वाले इंसानों... / हरकीरत हकीर
अभी तो ताज़ा थे ज़ख्म
पिछले वर्ष के
जब इन्हीं सडकों पर निर्वस्त्र
घसीटी गई थी
घर की लाज
और आज
ठीक एक वर्ष बाद
एक और गहरा जख्म...?
एक के बाद एक
छ: मिनट में छ: धमाके
ओह! इतनी दरिंदगी...?
इतनी निर्दयता...?
रक्तरंजित सड़कों पर
बिखरी पडी़ हैं लाशें
क्षत-विक्षत अंगों का बाजार लगा है
क्रोध,आक्रोश, धुआँ,बारूद, आगज़नी
चारो ओर कैसा ये सामान सजा है...?
आह..! मन आहत है भीतर तक
क्यों मर गई हैं हमारी संवेदनाएं...?
क्यों मर गई है हमारी मानवता...?
मुझे माफ करना
ऐ दर्द में कराहते इंसानों
मुझे माफ करना
अय बारूद में जलकर तड़पते इंसानो
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने मानव रुप में जन्म लिया
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने इस धरती पर जन्म लिया...
दुहाई है!
ऐ मानव जिस्म़ से खेलने वाले इंसानो...!
दुहाई है
ऐ रब की बनाई दुनियाँ में
आग लगाने वाले इंसानो...!
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम सिसकियों की
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम आहों की...
जो आज तुम्हारी वजह से
यतीम कहलाये जा रहे हैं...