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दु:खी मन की तलाश / प्रदीप मिश्र
Kavita Kosh से
दुःखी मन की तलाश
दु:खी मन पर होता है
इतना बोझ
सम्भाले न सम्भले इस धरती से
हवा ले उडऩा चाहे तो
फिस्स हो जाए और
आकाश उठाने की कोशिश में
धप्प् से गिर जाए धरती पर
दु:खी मन में होती है
इतनी पीड़ा
माँ का दिल भी पछाड़ खा जाए
पिता रो पड़ें फफककर
बहन छोड़ दे
डोली चढऩे के सपने
दु:खी मन में होती है
इतनी निराशा
जैसे महाप्रलय के बाद
पृथ्वी पर बचे एकमात्र जीव की निराशा
दु:खी मन जंगल में
भटकता हुआ मुसाफिर होता है
जिसे घर नहीं
नदी या सडक़ की तलाश होती है
दु:खी मन
नदी में नहा कर
जब उतरता है सडक़ पर
मंजि़लें सरकने लगतीं हैं उसकी तरफ़ ।