भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दु:ख: पाँच कवितायें / अंजू शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(1)

दबे पाँव रेंगता आता है
दुख जीवन में,
स्थायी बने रहने के लिए
लड़ता है सुख से
एक अंतहीन लड़ाई,

दुख को रोक पाने
जब नाकामयाबी मिले
तो कर लेनी चाहिए
एक दुख से दोस्ती
एक छोटा सा दुख
रो लेता है साथ
कभी भी,
कहीं भी

(2)

सुख की क्षणिक लहरों में
डूबते उतरते
एक दुख थामे रहता है
जमीन पर जिंदगी का सिरा,
वह होले से बुहार देता है
तुम्हारे घर और जीवन से
अनचाहे भुलावे,
पकड़ लो कस कर
दुख की उंगली
ताकि पहचान सको
दुख के पीछे की छिपी हंसी,
क्रोध के पीछे छिपा प्यार
और खामोशी के पीछे छिपे गहन अर्थ,
दुख समय के सुनार के हथौड़े की
वे चोटे हैं जो बदल देती हैं
ज़िंदगी को खरे स्वर्णाभूषण में
  
(3)
 
खलील जिब्रान दुख के कंधे
पर रखते हैं अपना सिर,
सहलाते हैं उसकी पीठ
फिर धीमे से बुदबुदाते हैं
कि "दुख धीमे धीमे कचोटता है,
कुरेदता है तुम्हारा अन्तर्मन
और बना लेता है बहुत से सुखों के लिए
एक सुरक्षित कोना,
यह वह पात्र नहीं है
जो थामता है तुम्हारी शराब
वह पात्र तो कुम्हार के आवें में
कब का जल चुका,"
मानिए कि "सुख की मधुर लहरियां पाने को
गुजरना ही होता है बांस को
चाकुओं की पुरखतर नोकों से,"
सुख वह मुसाफिर है जिसे एक दिन
खुशी के रास्ते गुज़र जाना है,
इसका स्थायी पता कुछ भी नहीं,
दुख जीवन के समुद्र की रेत पर
लिखा वह नाम है
जिसे हम आंसुओं के ज्वार में
आसानी से बह जाने देते हैं


(4)

दुख ईसा की सलीब पर पैबस्त
दर्द का नाम है,
वहीं सुकरात के जहर भरे प्याले से उठी
तूफान के आमद की आहट भी है दुख,
दुख के पाँव बोझिल हैं बेड़ियों से
और उसके हाथ थाम लेते हैं
कलाई किसी पुराने मित्र की तरह,
सुख के पाँव अक्सर बदल जाते हैं
सुदूर उड़ान भरने को आतुर परों में,
उसकी तोताचश्म बिनाई सदा
ताकती है खुला द्वार
सँजोती है तुम्हें नींद में छोड कर
दूर चले जाने का स्वप्न हौले-हौले

(5)

सुख जहां मोनालिसा की
मुस्कुराहट सा छद्म भुलावा है,
दुख के आईने में साफ साफ नज़र आती
हैं अपने और परायों की असली सूरते,
दुख के उद्गम से ही निकलता है
सुख का एक ठंडा सोता,
एक दुख ही जनक है सुख की सपनीली
उड़ानों का
बना लीजिये दुख को अपना मीत क्योंकि
दुख की कोख से ही जन्मती है
अक्सर एक नन्हें से
सुख की स्वप्निल अभिलाषा...