दु:ख के मारल आदमी / शार्दूल कुशवंशी
दु: ख के मारल आदमी, तनिको बोले-न-जाने।
एकर नाजायज़ फायदा, अमीर उठावे...
तरह-तरह के काम कराके, हमके ऊ भूलवावे।
दारू-गाँजा-ताड़ी देके, सथियन के बहकावे।
एकर नाजायज फायदा, अमीर उठावे...
काम करत-करत सात पुहुत बितल, तबो न भईले पूरा।
अँटारी त अँटारी रहल, मटियो के घर अधूरा...!
दुख के मारल आदमी, तनिको उठ न पावे।
एकर नाजायज फायदा, अमीर उठावे...
हमर मेहरी के तन पर ना जुटे, सालों भर लुगरी-लुगा।
हमार लईका नंगा घूमे, ओकर फूलावे फुगा।
का कइनी अबतक हमनी, कइसे अबतक रहलीं?
आज इहे बिचारल जावे।
एकर नाजायज फायदा, अमीर उठावे...
हमनी के मेहरी के गाल पिचकल, ओहनी के मेहरी के फूला।
ऊ हरदम जहाज-कार से चले, हमनी के किस्मत लुल्हा?
इहे त किस्मत के फेर बडुए, जे कमाए हाड़ ठेठाके।
ओकरा हिस्सा कुछ न मिले, श्रम के मोल बँटाके।
एकर नाजायज फायदा, अमीर उठावे...
अब त बिस्वासे नईखे कि मेहनत करके आगे बढब~।
पढल पंडित चाहे तू केतनी न बात कहब~।
बबुआ घर पर रोअत होईहन...!
फिर भी ऊ घड़ी भर पहिले जाए न देवे।
एकर नाजायज फायदा, अमीर उठावे...