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दु:स्वप्न / जितेंद्र मोहन पंत
Kavita Kosh से
सच्चा सपना,
नहीं ख्वाब कल्पना
सहमा—सहमा रहता हूं तब से।
अंर्तमन व्यथित,
नहीं मानसिक स्वस्थ
बिन नीर मीन, तड़पता हूं तब से ।।
वे हरित वन
जिन्हें देख हर्षित था मन
भीषण अनल से दहक रहे थे।
वह सरोवर,
जल क्रीड़ा से बदन था तर
जलचर जलाभाव में मर रहे थे ।।
उदीप्त प्रभाकर,
सुकून मिलता तन तपाकर
ग्रहण—ग्रसित हुए देखा।
चंद्र पावन,
सौंदर्य लुभावन
दाग—धूमिल, कलंकित होते देखा ।।
भव्य मंदिर,
घंटा—शंख के स्वर
बना था पिशाची तांडव घर ।
प्यार का घर,
प्रेम—पीयूष पूर्ण पत्थर
चरमराया हो रहा था खंडहर ।।
काश! भयावह
समेटे हुए दुराग्रह
दु:स्वप्न को न देख लेता
जीता सुखी जीवन
स्वस्थ मस्तिष्क मन
अरू शांति से दम तोड़ लेता ।।