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दूब, गुलाब, तितली और मैं / राजकिशोर राजन
Kavita Kosh से
दूब को देखा मैंने गौर से
और हथेलियों से सहलाता रहा
दूब तो दूब ठहरी
लगी थी पृथ्वी को हरा करने में निःशब्द
सुबह का खिला गुलाब था
उसकी रंगत, कँटीली काया और सब्ज़ पत्तों को देखा
बाँट रहा था पृथ्वी को सुगन्ध निःशब्द
मैंने एक तितली का पीछा किया
वह फूलों से अलग बैठी थी घास पर
वह भी मना रही थी उत्सव रंगपर्व का निःशब्द
दूब, गुलाब, तितली सभी निःशब्द
पृथ्वी को समर्पित
मेरे पास सिर्फ़ शब्द थे और भाव
जिनसे लिखी जा सकती थीं कुछ कविताएँ
उस दिन मुझे भरोसा हुआ
दूब, गुलाब, तितली की तरह
मेरे पास भी कुछ है, देने के लिए पृथ्वी को
और उनकी तरह
मेरी भी जगह है पृथ्वी पर।