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दूब / देव प्रकाश चौधरी

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पूजा की थाली में
पीछे छूटने लगी है दूब।
शहर में कम हो गई है
दूब की संभावना।
गांव के रास्ते पर
अब भी पड़ी मिलती है दूब।
जैसे मटमैली धरती पर
किसी ने फेंक दिया हो हरा रंग।
न गमला, न खाद
न चौकसी, न फरियाद
खुद ही उगी, ख़ुद ही बढ़ी
खुद ही ख़ुद को संभाला
रास्ते की दूब को कभी
किसी ने न पाला।
न मांगती कभी
पेड़ों के साए
बादल आए
तो पानी लाए।
शायद शहर को अब
सूट नहीं करती दूब की कहानी।
शहर में ख़ुद नहीं बढ़ते
अब कोई पौधे।
बिना खाद और पानी के
मर जाते हैं रिश्ते भी।
दूब तो आख़िर दूब है
जो कभी दिल में नहीं
हमेशा पैरों के नीचे आती है।
कुछ ख़ास घड़ी में
कुछ ख़ास नक्षत्रों में
कुछ ख़ास ग्रहों में
पूजा की थाली में आती है दूब
झूकता है लोगों का सिर
मगर
अब ख़त्म हो रही है
दूब की संभावना
फिर भी रास्ते और दूब
एक-दूसरे की याद में घुले हुए हैं।