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दूरहि गमन सै आयल हे दुलहा बाबू / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

दुलहे ने दुलहिन से कोहबर में बिछावन करने को कहा। दुलहिन इसके लिए तैयार नहीं हुई; क्योंकि वह अपने पितृगृह की संपन्नता और विद्वता को देख चुकी है तथा उसका परिवार का संस्कार और गर्व उसमें विद्यमान है। उसके नाकारात्मक उत्तर को सुन पति क्रुद्ध हो घोड़े पर चढ़कर परदेश जाने को तैयार हो जाता है। फिर तो पत्नी का सारा गर्व चूर-चूर हो जाता है। वह दौड़कर घोड़े की लगाम पकड़ लेती है और पति से कहती है- ‘आप तो परदेश चले, लेकिन मुझे किसे सौंप रहे हैं?’ पति उत्तर देता है- ‘तुम्हारे मायके में माँ-बाप और सहोदर भाई हैं तथा ससुराल में तुम्हारा देवर है ही। तुम्हें चिंता ही क्या है?’ इसके उत्तर में पत्नी कहती है- ‘प्रभु, तुम्हारे बिना ये लोग मेरे किस काम के? मेरे लिए तो तुम्हीं आँख के पंख हो तथा तुम्हीं मेरे सौभाग्य हो।’

दूरहिं गमन सेॅ<ref>से</ref> आयल हे दुलहा बाबू, दुअरहिं भै गेल<ref>हो गया</ref> ठाढ़ हे।
कहाँ गेल किय भेल सुहबी गे कनिआ सुहबी, कोहबर करु न बिछौन<ref>बिछावन</ref> हे॥1॥
एक हमें राजा के बेटी दोसरो पंडित के हे धिया, मोर सक<ref>मुझसे</ref> नहिं होयत बिछौन हे।
एतना बचन जब सुनलैन दुलहा बाबू, घोड़ा पीठि भै गेल असबार हे॥2॥
पटोर सम्हारैते सुहबी गे कनिआ सुहबी, धै लेल घोड़ा के लगाम हे।
तोंय<ref>तुम</ref> जे जाय छहो हे परभु ओहे देस हे तिरहूत, हमरा कै कहाँ सौंपने जाहो हे॥3॥
नैहरा जे छौ गे सुहबी माय बाप हे सहोदर भाइ, ससुरा में राजा छतरी<ref>क्षत्रिय</ref> देवर हे।
की करतै माय बाप की करतै सहोदर भाय, की करतै राजा छतरी देवर हे।
तोहिं परभु अँखिया तोंहिं परभु पँखिया<ref>पंख</ref>, तोहिं परभु सीथि<ref>बालों को सँवारकर सिंदूर लगाने के लिए माँग के बीचों-बीच बनाई गई रेखा</ref> के सेनूर हे॥4॥

शब्दार्थ
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