दूरियाँ / नेहा नरुका
मैं उनसे एक खेत दूर जाती हूँ,
वे मुझसे दो खेत दूर चले जाते हैं,
मैं फिर दो खेत दूर जाती हूँ,
तब तक वे चार खेत दूर चले जाते हैं,
थक हारकर मैं चार खेत दूर जाती हूँ,
वे आठ खेत दूर चले जाते हैं,
मैं आठ खेत दूर जाने की कोशिश में मर रही हूँ,
और वे गाँव लाँघ गए ।
'मैं गाँव कैसे लाँघू ?' प्रश्न हल भी नहीं हुआ !
वे रेल पकड़कर शहर आ गए,
मैं भटक रही हूँ उनके शहर में
उन्हें खोजते,
सब मिल रहा हैं यहाँ
कपड़ा-लत्ता, व्यंजन
घर, गाड़ियाँ, मनोरंजन
बस, जेब में पैसे होने चाहिए
केवल वे नहीं मिल रहे ।
उन्होंने खोज लिए हैं और भी शहर,
और भी देश,
और आकाशगंगाएँ,
और ब्रह्माण्ड
मेरी आँखें जल रही हैं उस अन्तिम छोर की कल्पना से
जहाँ से नहीं जा पाएँगे वे और दूर,
जहाँ नहीं रह पाएँगे हम और अपरिचित,
और औपचारिक,
और अज्ञात,
जहाँ नहीं बचेगा 'मैं',
न बचेगा 'वे',
जहाँ न किसी को कोई पीड़ा होगी,
न होगा कोई अपराधबोध,
जहाँ नहीं होगा सुविधाओं की लालसा से सना कोई क्रूरतम स्वार्थ,
(जहाँ से ये दूरियां शुरू हुई थीं ।)
जहाँ होंगी खेत की वही मेड़ें,
गेहूँ की वही भूरी बालियाँ,
सीने में धधकती वही आग,
देह से छूटा वही खारा पानी ।
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