दूरियाँ / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
गलियों के मुख पर लौह-द्वार
वाहन घर में नहीं
सड़क पर बाहर
निजता बचाने को
अनधिकृत कब्जा मददगार है
लोग भी कहेंगे
आपको पेड़-पौधों से प्यार है
बस किसी से मिलने न चले जाना
ये आम रास्ता नहीं है
कुत्तांे से सावधान
अपनी गाड़ी बाहर खड़ी करें
आप अपने सामान के
खुद जिम्मेदार हैं
कैसे आऊँ तुमसे मिलने
बाधाएँ बड़ी हैं
लगा है बैरियर गेट पर
सिर उठाने नहीं देता
खिड़की में रखा है रजिस्टर
पहले उसमें अपना सब-कुछ लिखो
तब घुसो
क्या लिखूँ?
तुमसे क्या काम है?
आजकल दूरियों के बढ़ते
मिलना भी क्या एक काम नहीं?
पर क्यों लिखूँ?
किसलिए?
अगर सुरक्षा के प्रति इतनी संवेदनशील हो
तो किसी को घर पर बुलाती ही क्यों हो
बेइज्जती करके उसकी इतनी
उसको रुलाती क्यों हो
बंद रखो अपने दुर्ग के द्वार
किसी को भी मत आने दो यार
अपने कुत्ते और टीवी से मन बहला लेना
नहीं चाहता अपनी निजता को भंग करके
इस तरह बैरियर पार करना
तुम्हंे मिलना हो तो निकल आना
वर्ना मिलकर भी क्या है करना
एक बैरिय ने दूरियाँ बढ़ा दी हैं
सारे संबंध छुड़ा दिये हैं
क्या तोड़ पाओगी कभी?
निकल पाओगी कभी अपने दुर्ग से?
खुली हवा में साँस लेने के लिए।