भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूरी / सुरेश बरनवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं
अपने घर की छत से
निहारा करता सितारे
और आंखों से नापता
जमीन से उनकी दूरी को
फिर बेबस हो
बैठ जाता था।

एक दिन मैंने देखा
अपने तीन साल के बेटे को
चांदनी रात की बेला में
चांद को निहारते
और अपने पैरों पर उचककर
उसे लपकने की कोशिश करते
बार-बार।

मुझे लगा
इतना भी दूर नहीं आकाश।