भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूरोॅ से देखोँ तेँ कुमुदोॅ ई कमल लागै छै / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
दूरोॅ से देखोँ तेँ कुमुदोॅ ई कमल लागै छै
असलके झूठ आरो झूठे असल लागै छै
हमरोॅ हर शेर नै शेरे भरी रही गेलै
ई बेवस्था केँ बेवस्था में दखल लागै छै
जिनगी चंगेज छेकै नादिरो से ज्यादा कठिन
छै नै-देखै में ई जत्तेॅ कि सहल लागै छै
तोहें बोलै छौ-ई दंगा केरोॅ तस्वीर छेकै
हमरा तस्वीर ई हमरे ही नकल लागै छै
घूस के टाका से ई पेट ई उठलोॅ उच्चोॅ
मानोॅ नै मानोॅ हिडम्बा रोॅ हमल लागै छै
एत्तेॅ बेबाक कथन आरो कहै के अंदाज
है तेॅ अमरेन केरोॅ साफ गजल लागै छै
-5.4.92