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दूर-दूर तक पंख पसारे / रमेश तैलंग

साथ हमारे कोई न हो
पर हम चलते जाएँगे।
इस दुनिया को अपनी
मुट्ठी में करके दिखलाएँगे।

आसमान की ऊँचाई से
पंछी कब घबराते हैं?
दूर-दूर तक पंख पसारे
वे उड़ते ही जाते हैं,
पंछी जैसे हम भी खुद ही
अपनी राह बनाएँगे।
इस दुनिया को अपनी
मुट्ठी में करके दिखलाएँगे।

छोटी-सी एक धार नदी की
पर्वत से टकराती है,
अपनी पर आ जाए तो फिर
पल में प्रलय मचाती है,
हम भी अपने संकल्पों
को मंजिल तक पहुँचाएँगे।
इस दुनिया को अपनी
मुट्ठी में करके दिखलाएँगे।

अभी हमारे पाँवों नीचे
एक आग का दरिया है,
नहीं जानते, इसके पास
उतरने का क्या जरिया है,
या तो पार उतीर जाएँगे
या फिर मर-मट जाएँगे।
इस दुनिया को अपनी
मुट्ठी में करके दिखलाएँगे।