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दूर-सुदूर / विमल राजस्थानी

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हजारो साल पहले जब मैं पहली बार
इस शस्य-श्यामला धरती पर आया था।
मेरे ऋषि-पिता ने मेरा छुटन्ना-सा हाथ थाम कर
मुझे ठुमक-ठुमक अपने आप चलना सिखलाया था
मेरेे नन्हें-मुन्ने कानों में अपनी अमोघ-ओजस्विनी-
पूत अमृतमयी वाणी उँडेली थी।
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ।
अपने पाँवों पर खड़ा हुआ।
मेरे सम्मुख एक मनोहारी, सुखद,सुन्दर-
विराट संसार था।
बहुमुल्य, बेशुमार, दप-दप दीपित-
अनोखे रत्नों से जड़ा हुआ।
गोधूलि वेला में - अपने बछड़ों के स्नेह में-
रँभाती, घर लौटती गायों के खुरों से उड़ती धूल-
गृह-वाटिका ही क्यों, पूरी धरती के जंगलों में-
संुवास लुटातेे हुए। झूम-झूम उठता था-
प्रतिक्षण धरा का कण-कण।
संध्याकालीन यज्ञ-धूम की, नथुनों को निहाल-
कर देने वाली मधुर-मदिर सुगंध से ढँक जाती थी-
महकाश की गहरी नीलिमा।
सोंधी-सोंधी गमकती हुई धूल-धूसरित सुगंध से।
मानवता कितनी पुलकित-प्रसन्न-निहाल थी-
सुखों के मुलायम धुनी हुई रूई के पहलों जैसे-
मसृण मृदु भार से।
उसकी मुँहबोली सखियाँ-सभ्यता और संस्कृति-
प्रभूत लाड़-प्यार पा कर कितनी प्रसन्न थीं-
अपने सुखी भरे-पूरे संसार से।
और आज हजारांे साल बाद मैं फिर इस धरती पर-
आया हूँ।
होश सँभालते-सँभालते जो कुछ भी देख रहा हूँ
उससे संतप्त हो, बौराया हूँ।
यह तो है अजनबी,गंदी-घिनौनी, उबकाइयों-
का दौर देने वाली अँधिकारी कारा।
शायद भूल से इस कुंभीपाक नर्क में-
एकेल दिया गया हूँ मैं महाकाल के सशक्त हाथों द्वारा।
इस धरती पर तो निन्याबे प्रतिशत हैवान-
और शैतान ही शैतान हैं।
यहाँ-वहाँ पत्थरों में बदलकर-
निष्क्रिय स्थापित हो गये भगवान हैं।
निर्जीव कागज के पन्नों में-
लिपटे पडे़, शव सरीखे, गीता और कुरान हैं।
पान की दुकान पर सुपारी, चून, जर्दे के साथ-
खिल्लियों के आधार बने-
वेद और पुराण हैं।
यह सब देख-देख कर ग्रहों-नक्षत्रों की,
सूरज, चाँद-सितारों की आँखेें पुरनम हैं।
हे भगवान! यह कहाँ आ गया हूँ मैं?
यह तो मेरी धरती है ही नहीं।
काश ! यदि प्रकृति ने दिये होते पंख तो-
कुम्भक साघे-साधे निमिष मात्र में-
उड़ कर चला जाता दूर-सुदूर-
और कहीं, और कहीं।