भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूर करती हैं दूरियां सबको / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
Kavita Kosh से
दूर करती हैं दूरियां सबको
जन्म के भेद जातियां सबको
देव, दानव, मनुष्य या किन्नर
खूब भाती हैं तालियां सबको
जीते जी खामियां नज़र आईं
बाद मरने के ख़ूबियाँ सबको
शॉल, कम्बल, रजाई छुट्टी पर
अब सताएंगी गर्मियां सबको
सास सेवा कि होड़ में बहुएँ
चाहिए घर की चाभियाँ सबको
भूक से बिलबिला रहे बच्चे
खल रही मां से दूरियां सबको
भाइयों से यहां कहीं ज़्यादा
प्यारी लगती हैं भाभियाँ सबको
भाग जाएँ न फिर कहीं क़ैदी
जा के पहनाओ बेड़ियाँ सबको
ख़ुश हुए हैं 'रक़ीब' ग़ज़लों से
कुछ सुनाओ रुबाइयाँ सबको