भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूर गई हरियाली / माखनलाल चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
एक मौत पर, दूजे दिल पर, और तीसरे ’उन पर’ आली,
मेरा बस न चलाये चलता, साधें रीतीं, आँखें खाली!
अब तो दूर गई हरियाली
बिजली का सिर चढ़ चढ़ जाना,
श्याम घनों का गल-गल गिरना,
कैसे दो वरदान, मिले हैं,
उन्हें गरजना, मेरा झरना।
ज्वारों से बेकाबू वे सखि,
आहों-सी लाचारी मेरी;
आह और आँसू जैसी है,
प्रणय विवशता उनकी मेरी।
काले नभ में खेल रहे हैं,
सूरज, चन्दा, झिलमिल तारे;
कैसे सुन्दरता खोएँगे,
वे पुतली के वासी प्यारे!
चिडियाँ चहक-चहक उठती हैं, ऊषा की लख आली आली,
किन्तु लाल की लाली से यह जी की डाल नहीं मतवाली।
अब तो दूर गई हरियाली
रचनाकाल: खण्डवा-१९५१