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दूर तक दिखते वही दागे़ हुए चेहरे / विजय किशोर मानव
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दूर तक दिखते वही दागे़ हुए चेहरे
हैं चलन में इन दिनों मांगे हुए चेहरे
रोज़ मरते, फड़फड़ाते हैं कैलेंडर से,
मुद्दतों से कील में टांगे हुए चेहरे
ऊंघते मिलते सुबह दरबार में बैठे,
रहज़नी में रात-भर जागे हुए चेहरे
हिंस्र पशुओं से घिरे देखे नहीं जाते
घर से लेकर ख़्वाहिशें भागे हुए चेहरे
आईने नारे लगाते रह गए पीछे
फूल-माला देखकर आगे हुए चेहरे