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दूर तक नज़र रखना आरियाँ छुपी होंगी / सुदेश कुमार मेहर
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दूर तक नज़र रखना आरियाँ छुपी होंगी
पेड़ कट गए सारे झाड़ियाँ छुपी होंगी
कैरियाँ छुपी होंगी, इमलियाँ छुपी होंगी
रेत के घरौंदों में सीपियाँ छुपी होंगी
छांट कर वो लमहे यूँ ही नहीं निकाले हैं,
इन उदासियों में भी मर्जियां छुपी होंगी
खोल तो ज़रा पन्ना फिर किसी दिसंबर का,
चाय की कहीं पर कुछ चुस्कियाँ छुपी होंगी
कमसिनी उठाकर लाऊं ज़रा लड़कपन की,
प्यार की मुहब्बत की तितलियाँ छुपी होंगी
पड़ गई हैं यादों में सिलवटें कहीं शायद,
ढूंढ ताक पर थोड़ी हिचकियाँ छुपी होंगी
बारिशों में कोई लम्हा भटक रहा होगा
झाँकना के गलियों में खिड़कियाँ छुपी होंगी