दूर देस की बेटी / कुमार वीरेन्द्र
'एक दिन चिरईं
जइसन उड़ जाऊँगी', उजबुजा जाती
यही कहती, फिर किसी ओर, अँगुरी से इशारा करते, धिराती
'उधर जाऊँगी उधर तो आऊँगी ढेर दिन बाद, तब रहना जैसे
मन तैसे', पहले हम भाई-बहन सोचते, आजी खीस
में है धमका रही, चिरईं जइसन कोई
उड़ थोड़े जाता है
और जाएगी भी उड़कर तो कहाँ
मैं तो आजी के पाँख पर ही बैठ
जाऊँगा, जहाँ जाएगी, उहाँ जाऊँगा, तब मालूम नहीं था, माई की
तरह आजियों का भी कोई नइहर होता है, जहाँ वह उड़कर साँचो जा सकती है, और जब वह
नइहर चली जाती, चुपके-छुपके, रो-रो बेहाल हो जाता, लेकिन समझाने पर चुप हो जाता, और
अकेले में सोचता, मैं ही सबसे बदमाश, तंग आके चिरईं जइसन उड़ गई, अब मैं कवनो
बदमाशी नहीं करूँगा, सबकी बात मानूँगा, स्लेट नहीं फोड़ूँगा, रोज़ पढ़ने
जाऊँगा, झगड़ा भी नहीं करूँगा किसी से, लाई-गट्टा
ख़ातिर कबहुँ ज़िद नाहीं करूँगा
और एक दिन जब लौट आती
अपने नइहर से आजी, कहता
'देखो, मैंने कवनो बदमाशी नाहीं की, अब उड़के मत जाना
चिरईं जइसन, नाहीं उड़ोगी न, बोलो, बोलो', आजी हाँ में मूँड़ी हिलाती, लेकिन तब भी वह
साल-भर बाद चली ही जाती, एक दिन जाना, आजी दूर देस की बेटी, जाके जल्दी लौट नहीं
सकती, एक दिन जाना कि आजी ही, अपने नइहर में बड़ी, टुअर भाइयों के लिए
अब तो वही, गोतिया-पटीदार कहने को अपने, इसीलिए जाके मोह
में खो जाती है, एक दिन जाना, अबकी बार आजी
ऐसे गई है चिरईं जइसन
कभी न लौटेगी नइहर से
चिरइंयों को देखते, भले याद आएगी !