दूर नहीं हो / गोपालदास "नीरज"
तन से तो सब भाँति विलग तुम
लेकिन मन से दूर नहीं हो!
हाथ न परसे चरण सलौने,
पाँव न जानी गैल तुम्हारी,
दृगन न देखी बाँकी चितवन,
अधर न चूमी लट कजरारी,
चिकने-खुदरे, गोरे-काले,
छलकन और बेछलकन वाले,
घट को तो तुम निपट निगुण पर,
पनिहारिन से दूर नहीं हो!
तन से तो सब भाँति विलग तुम
लेकिन मन से दूर नहीं हो!
जुड़े न पंडित, सजी न वेदी,
वचन न हुए, न मन्त्र उचारे,
जनम-जनम को किन्तु वधू यह
हाथ बिकी बेमोल तुम्हारे,
झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के,
रिश्ते जितने दुनिया भर के,
सबसे तो तुम मुक्त, प्रेम-
के वृन्दावन से दूर नहीं हो!
तन से तो सब भाँति विलग तुम
लेकिन मन से दूर नहीं हो!
रचते-रचते चित्र उड़े रंग,
शब्द थके लिख-लिख परिभाषा,
गढ़-गढ़ मूरत माटी हारी,
ख़त्म न लेकिन खेल तमाशा,
कब तक और छिपोगे बोले,
अब तो मन्दिर के पट खोले,
भले भजन से दूर मगर तुम
हठी रुदन से दूर नहीं हो !
तन से तो सब भाँति विलग तुम
लेकिन मन से दूर नहीं हो!