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दूर से देखना / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
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मैं अपनी भावनाओं को
चम्मच से हिलाता-डुलाता रहूँगा
इन्हें, तुम किसी दूसरी मेज़ से सुनना।
सामने हमारे सीधी तनी रहेगी प्याली
मेरी गोद से लगी दो उँगलियाँ
सलाइयों से बुनती रहेगी
यादों का जाल-
तुम किसी दूसरी मेज़ से देखना।
इसके बाद
जब वक़्त हो जाएगा पानी की तरह एकदम ठंडा
तब कुर्सी खींचने की आवाज़ के साथ
मैं उठ खड़ा होऊँगा
और चला जाऊँगा, एक बार भी पीछे तके बिना
वहाँ, जहाँ घरों की देह पर
बिजलियाँ बरसाती हैं कोड़े
और पेड़ों का झोंटा मुट्ठियों में भींचकर
ज़मीन पर पटक देना चाहती है हवा।
और जहाँ की बन्द खिड़कियों को
नाख़ूनों से खरोंच रही है
चुड़ैल बारिश।
तुम दूर खड़ी रहना
और वहीं से देखती रहना।