भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है / अब्दुल अहद ‘साज़’
Kavita Kosh से
दूर से शहरे-फ़िक्र<ref>ज्ञान का नगर</ref> सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है
साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल<ref>टैक्स</ref> चुकाना लगता है
बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है
उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश
ज़हन<ref>दिमाग़</ref> को इक झटका रोज़ाना लगता है
बे-मक़सद<ref>बिना लक्ष्य के</ref> चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है
क्या असलूब<ref>अंदाज़</ref> चुनें, किस ढब इज़हार करें
टीस नई है, दर्द पुराना लगता है
होंट के ख़म<ref>मोड़</ref> से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है
शब्दार्थ
<references/>