दूर है मंजिल सदा से जानता हूँ / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
दूर है मंजिल सदा से जानता हूँ
किन्तु मैं विश्वास लेकर चल पड़ा
राह के कांटे अलग करने पड़ेंगे
भाव भी मन के सजग करने पड़ेंगे
आंधियों का काम ही तो रोकना हैं,
किन्तु मैं उल्लास लेकर चल पड़ा हूँ
तुम मिले हो राह में यह भी भला है
मैं जला हूँ आह में यह भी कला है
तुम हँसोगे बात सुनकर के अनोखी,
किन्तु मैं उपहास लेकर चल पड़ा हूँ
वंचना से आज जीवन व्यस्त सा है
आज के व्यवहार से मन त्रस्त सा है
कांपते हैं पांव भी जब हूँ उठाता,
किन्तु मैं उच्छ्वास लेकर चल पड़ा हूँ
आज क्यों निश्चय करूँ होगी विफलता
कौन कह सकता मिलेगी ही सफलता,
किन्तु आशा एक तो मन में बँधी है
जो कि उर में प्यास लेकर चल पड़ा हूँ
देखकर उसको हृदय खिलता रहेगा
स्वाद जीवन का मधुर मिलता रहेगा
घोर तम से आज पथ आच्छन्न सा है,
किन्तु शुभ्र प्रकाश लेकर चल पड़ा हूँ
सुन रहा हूँ बढ़ रहा है आज क्रन्दन
है जटिल संसार का यह मोह-बन्धन
जानकर भी बढ़ रहा हूँ आश लेकर
जो कि उज्ज्वल हास लेकर चल पड़ा हूँ