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दूर होता ये अँधेरा क्यों नहीं / ब्रह्मजीत गौतम

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दूर होता ये अँधेरा क्यों नहीं
कोई चेह्‌रा साफ़ दिखता क्यों नहीं

एक अंधी दौड़ में है ज़िंदगी
मिल सका अब तक किनारा क्यों नहीं

रौशनी हर झौंपड़ी को चाहिए
कोई दीपक टिमटिमाता क्यों नहीं

मंज़िले मक़्सूद मिल जाती तुझे
हौसला कुछ देर रक्खा क्यों नहीं

मुद्दतों से है ज़रूरत अम्न की
ख़ात्मा फ़ित्नों का होता क्यों नहीं

मंदिरों या मस्जिदों में है न वो
दिल के गलियारों में ढूँढ़ा क्यों नहीं

थे उजाले ही जहाँ, अब उस जगह
कोई जुगनू भी चमकता क्यों नहीं