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दूर –कहीं दूर / शशि पाधा
Kavita Kosh से
अँधेरे में टटोलती हूँ
बाट जोहती आँखें
मुट्ठी में दबाए
शगुन के रुपये
सिर पर धरे हाथों का
कोमल अहसास
सुबह के भजन
संध्या की
आरतियाँ
लोकगीतों की
मीठी धुन
छत पर रखी
सुराही
दरी और चादर का
बिछौना
इमली, अम्बियाँ
चूर्ण की गोलियाँ
खो-खो, कीकली
रिबन परांदे
गुड़ियाँ –पटोले
फिर से टटोलती हूँ
निर्मल स्फटिक- सा
अपनापन
कुछ हाथ नहीं आता
वक्त निगल गया
या उनके साथ सब चला गया
जो चले गए
दूर--- कहीं दूर
किसी अनजान
देश में
और फिर
कभी न लौटे।