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दूसरा चेहरा / संतलाल करुण

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धरती
नारी
प्रकृति
मेरी हवस का
सबसे ज़्यादा शिकार हुईं।
आकाश
पर्वत
समुद्र
मैंने किसी को
नहीं छोड़ा।
अंतरिक्ष
चाँद-सितारे
ग्रह-उपग्रह
सब मेरी पहुँच के
दायरे में हैं।
मैं निचोड़ता हूँ
ब्रह्माण्ड
अपने सुख के लिए।

अंधे-मरकहे
बैल की
सींग-जैसी
अपनी महत्त्वाकांक्षा के
तपते-भुनते
तंग चौबारे से
मैं अपने
भारी-भरकम
आणविक शब्द
दुनिया के
कानों पर
विस्फोट करता हूँ।
मैं कभी
धर्म
कभी आपद्धर्म
और कभी
धर्मयुद्ध के
जैव-रासायनिक अस्त्र
फेकता हूँ
उनकी सोच की
मुँडेरों पर
जो मेरे द्वारा
गढ़ी गई परिभाषाएँ
लाँघने की
जुर्अत करते हैं।

राज
उसकी गद्दी
समाज
उसके चबूतरे
मैंने बनाए हैं
कल-बल-छल के
तंबू-कनात
मैंने खड़े किए हैं
मंदिर-मस्जिद के
छतखम्भ
मैंने तराशे हैं
मज़बूत गाड़े हैं।
प्रतिबद्ध देवता
उनकी सत्ता
शैतान-मसान
उनका भय
सब को
अस्तित्व
मैंने दिया है
सब पर
सत्य-असत्य की
कलई
मैंने चढ़ाई है।

धरती माँ है
आसमान पिता है
मुझे पता है
पर मेरी निगाह
आसमान पर
अच्छी तरह है
और धरती
मेरे पैरों के
नीचे है
उसकी कोख पर
उसकी गोद पर
गोद की
किलकारियों पर
मेरे तेवर
निगरानी रखते हैं
सब को
मेरे हिसाब से
बड़ा होना है
जो बड़े हैं
मेरे हिसाब से
हँसना-रोना है
या मेरी
त्योरियों के कोप से
नेपथ्य में
दफ़न होना है।

जब मुझे
पुरुषार्थ कोई
दूर नज़र आता है
बाधाएँ बढ़-चढ़कर
लाग-डाँट करती हैं
तब मेरी
आँखों में
ख़ून उतर आता है
मुख-विवर
विषदंत काढ़
फैल-फैल जाता है
हाथ-पैर
बहुगुने हो
हिंसक हो जाते हैं
तब इंसान क्या
उसकी दो पल की
जान क्या
सारा आचार-विचार
सारी इंसानियत
मेरे लिए
महज़ मूली-गाजर
हो जाती है
मैं उसे
बथुए की तरह
एक झटके में
उखाड़ फेंकता हूँ।

मैं बहुत सभ्य
ऊपर-ऊपर हूँ
भीतर नाख़ून बड़े
दाँत बड़े
आँत बड़ी
पशु-जैसे बाल बड़े
मन के
अँधेरे में
काले पहाड़ बड़े
अंधी गुफाएँ हैं
जंगल हैं
विकट बड़े
भीतर-ही-भीतर
मैं नग्न
विकल रीछ-सा
बाहर से
दिखने में
मर्द की औलाद हूँ।

मैं समय के
घोड़े पर
चाबुक बरसाता हूँ
दौड़ाता हूँ
अपनी मनमानी राह पर
गाँव पड़े
शहर पड़े
सुख-चैन
नींद पड़े
दर्द-आह
चीख पड़े
बेकाबू टाप
कहाँ रुकते हैं
बनते-बिगड़ते हैं
राज व समाज
मेरे कदमों के साथ
मगर ख़ून के
निशान छोड़
आगे बढ़ जाता हूँ।

आते उग बाल
जब सुअर के
मेरी आँखों में
पिता-पुत्र
भ्राता-पति
कोई नहीं होता मैं
अपने-पराए का
भेद नहीं होता कुछ
आते हैं मौके तो
ख़ुद को
खा जाता हूँ।
न इस पार का
न उस पार का
लोक-परलोक
मैं कहीं का
कभी होता नहीं
न राजा का
न प्रजा का
न घर का
न बनिज का
हर घेरे-बसेरे में
मतलब का यार हूँ।

झुकते संबंध सब
आकर
मेरी शर्तों पर
बाकी को
झाड़ू लगा
कूड़े की राह
दिखा देता हूँ
सब की आशा
सब की निष्ठा
सब की सेवा
नाम-दाम वाली
ऊँची बोली के
झटपट बाज़ार में
बेच-बाचकर
मैं अपने
मन के नाचघर में
अहं की
नर्तकी के आगे
घोर निजता का
मदप्याला थामे
बस झूमता
रहता हूँ
झूमता रहता हूँ।

प्रश्न यह नहीं है
कि मैं
किस देश का हूँ
किस धर्म का हूँ
किस जाति का हूँ
प्रश्न यह है
कि इस
भीड़-भाड़ में
मेरी पक्की
पहचान क्या है
और यह पूरी भीड़
जो मेरी
धमा-चौकड़ी से
एड़ी से चोटी तक
लहू-लुहान है
मेरी पहचान
मेरी लुप्तमुद्रा की
पक्की पहचान
ज़रा मैं भी तो सुनूँ
बताती क्या है।

“नीच! नराधम!
दुरात्मा!”
क्या कहा ?
अरे भाई,
मैं आदमी नहीं हूँ
मैं कोई
पापी-दुराचारी नहीं
कोई दुष्कर्म
मैंने नहीं किया
दुनिया का
कोई अधर्म-अपराध
मेरे नाम
नहीं लिखा जा सकता
मैं पूरी तरह
बेदाग़ हूँ।

मैं न आदमी हूँ
न ही नर-कापालिक
न ही मैं
नर-पिशाच हूँ
मैं तो सिर्फ़
चेहरा हूँ, चेहरा
वह भी गायब चेहरा
जो अक्सर
दिखाई नहीं देता
लेकिन होता है
सभ्य आदमी के
पास होता है
उसका चेहरा
उसका दूसरा चेहरा।