भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूसरा सीन / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लुप्त हो गया था

पथरचटा
नामोनिशान नहीं दूर तक

वह
   जो चट्टानें फोड़कर
पनपता चला जाता था
हरी-लाल धमनियों सी बेल
गोल-गोल हरे सिक्कों जैसे
 पत्ते कुछ-कुछ खटास लिए,
आप उनसे सीटी बना सकते थे
या टिकुली या
अपनी तख़्ती पर पुराना लिखा
मिटा सकते थे उसकी लुगदी से...

वो पथरचटा
लुप्त ऐसा हुआ
कि भाषा से भी गायब हो गया
पूछो गाँव में किसी युवक से
  उसने सुना ही नहीं ये नाम

एक दिन
सुबह-सुबह
दिखा एक चैनल पर अचानक
पहले से अधिक सरसब्ज़
योगीराज उसका
परिचय करा रहे थे
हाँ ,नाम अब उसका बदल चुका था
अब था वह पुनर्नवा

मुझे देख पहले तो मुसकाया
फिर जाने क्या हुआ कि अचानक
देखते-देखते उसकी पत्तियाँ -डण्ठल
                    मुरझाकर झूल गए

फिर टीवी पर दूसरा सीन आ गया