हे दीनबन्धु, करुणा-निधान!
जगती-तल के चिर-सत्य-प्राण!
होरही व्याप्त है कण-कण में
तेरी ज्योतिर्लीला महान्॥1॥
सर-सरिता-निर्झरिणी का जल
बहता रहता प्रतिपल अविरल
कल-कल करता, गाता फिरता,
तेरे ही यश का मधुर गान॥2॥
ये मृदुल और मंजुल कलियाँ
तरु-तरु की ये सुमनावलियाँ,
विस्फुट करतीं, विकसित करतीं
सौन्दर्य अमित तेरा महान्॥3॥
झिलमिल-झिलमिल तारे अगणित,
नीलाम्बर को करते शोभित,
वह भव्य रूप उनका स्वरूप,
तेरे प्रकाश से दीप्तिमान॥4॥
प्रभु तेरा वह प्रकाश निर्मल,
जग को ज्योतित करता प्रतिपल,
मेरा हृद-तल भी हो उज्ज्वल,
पाकर उसका नव-दिवय दान॥5॥