दूसरों को ग़लत गर कहा कीजिए
आइने से ज़रा मश्वरा कीजिए
कब तलक सिर्फ़ अपनी कहेंगे मियाँ
कुछ हमारे भी दुखड़े सुना कीजिए
सब्ज़ ही सब्ज़ आता है जिससे नज़र
ऐसे चश्मे को ख़ुद से जुदा कीजिए
चाहतें हैं बग़लगीर होना अगर
अपने क़द को ज़रा सा बड़ा कीजिए
ज़ख़्म नासूर होने लगे हैं मेरे
कुछ मेरे दर्द की भी दवा कीजिए ण
चश्मे दुनिया जनाब आपकी सिम्त है
कुछ तो नज़रों की इज़्ज़त रखा कीजिये
आज़मा तो रहे हैं मेरे सब्र को
‘दीप’ क़ायम रहे ये दुआ कीजिए