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दृगगोचर कब होंगे प्रियतम! अब अलस सिहरती काया है / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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दृगगोचर कब होंगे प्रियतम! अब अलस सिहरती काया है।
आनन्दधाम से चिर सुन्दर! तव प्रणय-निमंत्रण आया है।
कोकिल बसंत की चिर सहचरि कहती प्राणेश-निमंत्रण है।
‘पी कहाँ’ पपीहा की वाणी सद्यः छू गयी विरह-व्रण है।
”आमंत्रण है” मुकुलित रसाल की कहती सुरभित छाया है।
कल-कल छल-छल सरि इंगित में प्रिय! तुमने मुझे बुलाया है।
फिर रही प्राण! बेसुध विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली॥86॥