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दृगों में सपन गर सजाए न होते / चेतन दुबे 'अनिल'
Kavita Kosh से
दृगों में सपन गर सजाए न होते।
तो यों दर्द के गीत गाए न होते।
अगर उनकी मुस्कान मिलती न मुझको
तो यों आँसुओं में नहाए न होते।
अगर वो हमारे हृदय में न रहती
पलक - पाँवड़े हम बिछाए न होते।
बिना उनके मुझको सबक भी न मिलता
अगर चोट उनसे यों खाए न होते।
मुझे उनसे होती न शिकवा - शिकायत
उन्होंने ज़ुलुम गर यों ढाए न होते।
उन्हीं की कृपा है जो मैं बन गया कवि
ये मुमकिन न था गर पराए न होते।