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दृग लाल बिसाल उनीँदे कछू गरबीले लजीले सुपेखहिँगे / शम्भु
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दृग लाल बिसाल उनीँदे कछू गरबीले लजीले सुपेखहिँगे ।
कब धौँ सुथरी बिखरी अलकैँ झपकी पलकैँ अवरेखहिँगे ।
कवि शम्भु सुधारत भूषण वेस निहारि नयो जग लेखहिँगे ।
अँगरात उठी रति मँदिर ते कब भोरहिँ भामिनि देखहिँगे
शम्भु का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।