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दृश्याँकन / मृत्युंजय

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ज्ञान से अनुराग से और ज़बर से
सत्य का पोपला वह मुँह खोह जैसा
गोह जैसा चिपकता चलता गया

उजाले से बने आतँक के सर
चुनिन्दा जिस्म के मन के
आए गज बाजि उपवन वाटिका सब भर गई है
कर गई है वक़्त की गति को रसीली
हो गई गीली सतह
तह तक कोई भी रास्ता अब नहीं जाता
लौट आई है वही भागीरथी
उलझती साँप बिच्छू गरल कण्ठों से
जटाओं की असम्भव क़ैद में प्रमुदित दिखी सी
करोड़ों साल से

ख़ुशी के इस अनोखे नाद में
हज़ारों साल की चुन दी गई फ़रियाद में
डूबे हुए है लाख दिल हैं लाख दर्द
सौ करोड़ रसोईयाँ
हैं बिना श्रम की दहकती-सी आग
इस प्रजाति की यही अन्तिम विदा बेला
अर्चना अभ्यर्थना की माँग में है श्मसानी राख़

कहानी यूँ रही कि नहीं कोई बात
बच कर बच गई
है रात हर मुश्किल डगर में पोसते हैं
हाथ दिप-दिप से उजाले
हमारे ही दिमागों में बने हैं बिल्डिंगों के कई माले
खिड़कियों से शून्य टकराती हैं तन की नई लीला
मन जो तन में खो गया है
जो होना वह हो गया है
जागती है अखिल संसृति
विकृति की पर्वत लहरियाँ बान्धती हैं देश को नभ को क्षितिज को काल को थल को
देह मन में

कहीं ख़तरा नहीं है
हड्डियाँ और खोपड़ी सब हैं अलहदा
अदा ऐसी जी जले जल कर फले फल कर गले गल कर चले चल कर
कहीं पहुँचे नहीं मैं भटक जाता हूँ
रफ़्ता-रफ़्ता बढ़ते हैं नाख़ून
ना! ख़ून बढ़ता है रफ़्ता-रफ़्ता
रफ़्ता-रफ़्ता हत्याएँ होती हैं
रफ़्ता-रफ़्ता बलात्कार
रफ़्ता-रफ़्ता बदलती है सरकार
यह भी कितना सुखद है दृश्य
कि हम सब अदृश्य खिड़की से सटे अदृश्य दुनिया में अदृश्य शब्दों से
दृश्य गढ़ते चले जाते जा रहे होते हैं ।

किलेबन्दी टूट जाए तब जब कोई किला हो
किला नहीं है और बन्दी टूट जाएँ ऐसा सिर्फ़
वर्तमान और इतिहास की हथेलियों की रेखाओं में दर्ज है
भविष्य के चक्के में फँस गया है दुपट्टे का ज़री वाला काम
लाम पर कट रही है छोकरी की देह