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दृश्य : चार / कुमार रवींद्र

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समूहगान: हैं अन्धकार -
सूर्योदय का गहरा विचार
पलता है सभी दिशाओं के मन में
सोयी वनराजि स्वप्न में भी अकुलाती है।

यह सनसन की आवाज़
चीरती मौन शान्ति -
है बींध रहा यह कौन हवाओं को आतुर -
यह तीर अचानक किस दाड़िम के दानों को
बिखराकर
सूर्योदय का छल रचता अनूप?

हिलते तारे -
भय काँप रहा मानो सजीव।
पत्ते-पत्ते पर चिह्न शौर्य के हैं अंकित।

यह किस धनु की टंकार
टँगी है पेड़ों पर?
यह कौन कर रहा संस्कार शाखाओं का
वाणों से अपने बींध-बींध?
आहट किससे भयभीत भागती है चुपचुप?
यह इन्द्रजाल किसने टाँगा आकाशों में?
लगता है जैसे तूणीर दिशाएँ हैं सारी-
वाणों से सब अवकाश भरे।

लो हटा अचानक तिमिर-जाल -
वाणों को लिया समेट किसी ने जादू से।

फिर ऊगा हवा में मन्द
मन्त्र का स्वर पुनीत -
सूरज ने अपने नेत्र खोल देखा वन को -
अंकित चिह्नों से सुमन-राशियाँ फूट पड़ीं -
किरणों ने देखा वाणों के अभ्यासी को
नतमस्तक अरुणोदय होते।

[हस्तिनापुर के निकट के वन-प्रदेश के बीच एक खुला स्थान। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से झरती किरणों में नहाता दृश्य। एक ओर एक मौलश्री के वृक्ष के नीचे टहनियों और पत्तों से बनी एक छोटी-सी कुटिया है। निकट ही एक जल का सोता मन्द-मन्द बह रहा है। सोते के एक ओर एक टीले के शीर्ष पर एक मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के सामने एक युवक नमन कर रहा है। मन्त्रोच्चार के साथ पुष्पांजलि अर्पित करता है]

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

[युवक निकट पड़े धनुष को उठाकर मूर्ति के चरणों में रखता है। धनुष की प्रत्यन्चा में हलकी-सी ध्वनि होती है। युवक के चेहरे पर मुसकान आती है। वह धनुष को उठाकर खड़ा हो जाता है। युवक एकलव्य है। मूर्ति की मुखाकृति आचार्य द्रोण से मिलती है। युवा एकलव्य विचारमग्न हो जाता है]

विचार-स्वर: फिर वर्षों का व्यवधान
किन्तु मैं आप्तकाम।
स्वीकार किया मुझको गुरु ने कैसा छल से।
अस्वीकृति का क्षण ही
मुझको स्वीकार हुआ -
हो गया वही मुझको सम्बल।
दे दिया मन्त्र मुझको
मेरे अभ्यासों का -
'तू अन्धकार का पुत्र' -
वही हो गया पाठ -
मेरी दीक्षा का सूर्योदय।
मैं जाप उसी का करके आज समर्थ हुआ।

वैसे लगता है अन्धकार निष्क्रिय-निरीह
पर उसमें पलती क्रियाशीलता की आस्था -
हो गयी वही आस्था जीवन-सन्देश नया।
है मर्म प्राण का मुझे मिला
इसमें अपना -
है उसी प्राण से मेरा मन उल्लसित आज।

मैं हूँ कृतज्ञ !
गुरुवर ने मेरी साँसों में है वास किया -
यह मूर्ति उसी का बाह्य रूप।
मुझको हर पल शिक्षा दी है -
मेरी बाँहों को थाम-थाम
मेरे प्राणों में लक्ष्य-बेध का प्रण भरकर -
मेरी मुट्ठी में रक्त बने
मेरी साँसों में बने लक्ष्य -
हर पल मेरे विश्वासों के संग रहे।
रह निराकार
मेरी सामर्थ्यों को पोसा।
नित देते रहे अर्थ मेरे इन वाणों को -
हो गया सिद्ध यह धनुष...
उन्हीं के जादू से।
हर तीर आज मेरा समर्थ
अब व्यर्थ न कोई जिज्ञासाएँ हैं मेरी -
सब गुरुवर की अनुकम्पा है।

[सूर्य अब तक ऊपर चढ़ आया है। गरमी कुछ बढ़ने लगी है। मूर्ति के चेहरे पर सीधी किरणें पड़ती हैं। भ्रम होता है जैसे मूर्ति के नयन खुलते हैं और वह मुस्कराती है। एकलव्य जल्दी से कुटी में जाकर वहाँ से पत्तों का बना हुआ एक छत्र लेकर आता है। उसे प्रतिमा के सिर पर एक लम्बी डाल के सहारे से टिका देता है। मुस्कराते हुए मूर्ति को सम्बोधित करता है]

एकलव्य: गुरुवर!
श्रमित हुए होंगे
विश्राम करें -
मेरा अभ्यास आपके श्रम का है कारण
चुना किन्तु आपने ही मुझे शिष्य रूप में -
मेरे अन्याय-धृष्टताएँ भी सहन करें।

[मूर्ति के चरण चाँपता है। भुजाओं पर मालिश करता है। एकलव्य इन्हीं सब क्रियाओं में मग्न है, तभी कुत्तों के जोर-जोर से भौंकने का स्वर आता है। उसी समय एक मृग-शावक भागता हुआ प्रवेश करता है। एकलव्य के पास आकर उससे सट जाता है। थर-थर काँप रहा है वह। एकलव्य उसे सहलाता है, दुलराता है। भयभीत मृग किन्तु काँपता ही जाता है। एकलव्य मूर्ति को सम्बोधित करता है]

एकलव्य: देखा गुरुवर!
भय का है कैसा यह समाज।
मानव के शस्त्र हुए कितने अपराधी हैं।
हर ओर घोर हिंसा का स्वर-
रक्षक ये शस्त्र हुए भक्षक हैं जीवों के।

जंगल इन भोले पशुओं का आवास क्षेत्र -
इनका आखेट करे मानव
यह अनुचित है।

मृग-शावक, मेरे बन्धु!
सुरक्षित है अब तू -
आचार्य द्रोण का यह आश्रम
तेरी रक्षा में है समर्थ।
इसकी सीमा में आ सकता आतंक नहीं।

[तभी एक ओर खुली दिशा से भौंकते हुए कुत्तों का प्रवेश। वे एकलव्य की गोद में मृग को देखकर उस ओर लपकते हैं। पलक झपकते ही एकलव्य अपने धनुष को उठाता है, तीर फेंकता है, जो बढ़ते हुए कुत्तों को बिना खरोंच लगाए उनके नखों पर प्रहार करते हैं। कुत्ते कुछ पल के लिए ठिठकते हैं। इसी बीच एकलव्य तीर फेंककर कुत्तों के मुँह भर देता है। कुत्तों को चोट जरा भी नहीं आती है, पर वे निष्क्रिय और असमर्थ हो जाते हैं। वे पीछे मुड़कर भागना चाहते हैं, किन्तु एकलव्य उनके चारों ओर वाणों का व्यूह बना देता है। तभी कौरव और पाण्डव राजकुमार प्रवेश करते हैं। उनमें युधिष्ठिर नहीं हैं। भीम और दुर्योधन सबसे आगे हैं। उनके पीछे अर्जुन और दु:शासन और अन्य कई राजकुमार - सभी विस्मय से कुत्तों की दुर्दशा देखते रह जाते हैं। केवल अर्जुन बोलते हैं]

अर्जुन :(स्वगत) विस्मय अतीव!
अद्भुत कौशल!
निश्चय ही सिद्धि अलौकिक है।
यह धनुर्वेद के कौशल का ऐसा प्रयोग
आचार्य सिर्फ़ कर सकते हैं।
हैं वाण किन्तु आघात नहीं -
आश्चर्यजनक!
यह युवक कौन?

(प्रकट में) ये छद्मवेश में आप कौन हैं, बन्धु?




चातुर्य आपका अतुलनीय -
हूँ चकित, धनुर्धर
मैं इस अतिशय कौशल से।
हैं देवपुत्र या सिद्धपुरुष?
मेरे विस्मय का उत्तर दें।

एकलव्य: मैं एकलव्य हूँ, भीलपुत्र
आचार्य द्रोण का शिष्य
तुम्हारा गुरुभाई।
विस्मित मत हो पाण्डव-कुमार।
यह चमत्कार गुरुवर का है।
सब कुछ सम्भव है करना उनकी शिक्षा से।
वे देवोपरि हैं परमपूज्य।

[भीम हँसता है, हँसते हुए कहता है]

भीम: अर्जुन, अपने आचार्य बड़े ही अद्भुत हैं।
तू चरण चाँपता रहा
सिद्धि मिल गयी इसे -
तू अभ्यासों में जुटा रहा
हो गया सिद्ध यह भीलपुत्र।
सच, चमत्कार करते हैं गुरुवर कई बार -
अद्भुत वे अपने छल में भी।

[अट्टहास करता है। उसकी हँसी वेगवती झरनों की भाँति सारे वन-प्रदेश में गूँजती है। एकलव्य मन्त्रमुग्ध इस मस्त युवक को ताकता रह जाता है। फिर उसका ध्यान अर्जुन के हतप्रभ चेहरे की ओर जाता है। वह अर्जुन के प्रति ममत्व से भर उठता है, कहता है]

एकलव्य: मेरी है स्पर्धा नहीं तुम्हारे संग, मित्र।
तुम हो कुलीन
मैं कुलविहीन -
तुम राजपुत्र, मैं हूँ अन्त्यज -
मत करो ईर्ष्या, मित्र!
मुझे स्वीकार करो -
जैसा भी हूँ, मानव तो हूँ।

[कहते हुए वह वाणों के व्यूह को एक ही वां से भंग कर देता है। कुत्ते मुक्त ही मुड़कर भागते हैं। सभी कौरव और पाण्डव कुमार भी एक-एककर वहाँ से चले जाते हैं। अर्जुन क्षणार्ध के लिए रुकते हैं। चेहरे पर असमंजस और चिंता का भाव है। एकलव्य की ओर देखते हैं। फिर वे भी मुँह मोड़कर चल देते हैं। एकलव्य दूर तक अर्जुन की ओझल होती हुई आकृति को देखता रहता है। उसके मन में विचार उठते हैं]

विचार-स्वर: मैं भीलपुत्र,
इसलिए पराक्रम मेरा
सारा शौर्य व्यर्थ।
अस्वीकृति मेरे जीवन का पर्याय हुई।
मैं सखा नहीं बन सकता हूँ क्यों अर्जुन का?

[इसी बीच दुर्योधन पुनः प्रवेश करता है, कुटिल और चतुर दृष्टि से इधर-उधर देखता है। एकलव्य उसे देखकर चौंकता है, मृगशावक भी फिर से थर-थर काँपने लगता है। दुर्योधन कुटिल मुस्कान के साथ एकलव्य को सम्बोधित करता है]

दुर्योधन: हे एकलव्य!
मैं दुर्योधन,धृतराष्ट्र-पुत्र
कुरुसत्ता का असली स्वामी।
हूँ देने आया तुम्हें तुम्हारा उचित स्थान।

तुम वीर-शिरोमणि भीलराज
मैं वीरों का आश्रयदाता
तुम मेरे सेनाध्यक्ष बनो
मेरी सत्ता के दृढ़ अनन्य स्तम्भ बनो।
मैं भोगूँगा कुरुलक्ष्मी को
तुम भी होगे उसके मेरे सँग सहभोगी।
मेरे शासन को फैलाओ इस धरती पर
मैं तुम्हें सुरक्षित कर दूँगा
जीवन-भर को।

तुम अर्जुन से थे माँग रहे भिक्षा -
वह भिक्षुक क्या दे पायेगा?
मैं देता तुमको सत्ता का सम्पूर्ण भोग।
आओ, मेरे सँग, मित्र
और भोगो सुख को।

तुम नहीं जानते
ये पाण्डव हैं बड़े दुष्ट -
जारज सन्तानें देवों की
ये नाममात्र को पाण्डव हैं।
कुरुकुल की सत्ता पर असली हक़ मेरा है।
कुन्ती के छल से ये जनमे
हैं बड़े छली।
मेरा अधिकार छीनने का उद्यम इनका।
मैं इन्हें न दूँगा
एक सुई की नोक बराबर भी धरती।
यदि तुम दो मेरा साथ
पाण्डवों के विरुद्ध
तो कुरुसत्ता के निष्कंटक भोक्ता होंगे हम, एकलव्य।
ये पाण्डव भिक्षा माँगेंगे
सेवक होंगे
हम होंगे इन सबके स्वामी।

[दुर्योधन का अतिरिक्त उत्साह एवं गर्वोक्तिपूर्ण वक्तव्य एकलव्य को भयभीत करता है। क्षणार्ध के लिए वह दुर्योधन के इस प्रस्ताव से सम्मोहित भी होता है, किन्तु उसे इस कुटिल राजकुमार द्वारा दिया कशाघात का अनुभव याद आ जाता है। वह पूरी तरह स्वस्थ एवं शान्त स्वर में उत्तर देता है]

एकलव्य: नहीं...नहीं....
कुरुराजपुत्र!
नहीं सम्भव है यह -
तुम राजपुत्र, मैं भीलपुत्र
तुम हो शासक- मैं शासित हूँ।
प्रस्ताव तुम्हारा है दयालु
आभारी हूँ।
पर मैं अनार्य- तुम आर्यश्रेष्ठ
यह साथ नहीं निभ पायेगा -
हम दोनों ही होंगे अपयश के भागी ही।

पाण्डव हैं मेरे मित्र नहीं
पर वैरी भी तो नहीं।
उनको छलकर मैं पातक का भागी हूँगा।
इस कुरुसत्ता की राजनीति में
भाग नहीं ले पाऊँगा मैं, क्षमा करें।

[कहते हुए एकलव्य मृगशावक को गोद में लिये कुटी की ओर चल देता है। दुर्योधन उसे टुकुर-टुकुर देखता रह जाता है। फिर झटके से तिरस्कार भाव से 'हुँह' करता हुआ वहाँ से चला जाता है। एकलव्य का विचार-स्वर उठता है]

विचार-स्वर: हतभाग्य, हाय!
इतने वर्षों के बाद मिला स्वीकार मुझे
मैं उसे नहीं कर पाया अंगीकार।
छल-छद्मों की यह राजनीति ही
मेरे हिस्से में आयी...
आह, मैं हतभागी!

जिनसे चाहा स्वीकार
उन्होंने दुत्कारा
सत्ता की यह स्वीकृति
हुई नहीं स्वीकार मुझे।
क्या करूँ...
हठी जीवन का क्रम
क्या मुझको केवल छल से ही अपनाएगा ?

हे वनदेवो!
मुझको दो साहस
सहन करूँ
अपमान और अन्याय सभी।
हम हैं वनपुत्र
हमारी हैं पहचान वृक्ष
सीमाएँ जिनकी निश्चित हैं
पर सीमाहीन हवा में
जिनका है प्रसार।
काया से सीमित
किन्तु गंध से हैं असीम
पीड़ा सहते हैं पतझर की
मानव के अन्यायों को भी।

अब वही पूर्वज
मुझको दें आशीष
बनूँ मैं
उनकी वल्कल-सा सहिष्णु -
सह सारे आतप-वर्षाएँ अन्यायों के
मैं गंध भरूँ सबके मन में।
पीड़ाएँ सब हों मेरी
सबका अनुदार प्रयोजन मुझसे सधे
किन्तु...
मैं स्वयं प्रयोजन बनूँ
सभी के सुख का ही।

[कुटी के ऊपर छाये मौलश्री के वृक्ष से फूल झरते हैं। हवा के झोंको में स्वस्ति-वाचन गूँजता है]

स्वस्ति-वचन: मंगलमय हो पथ
वत्स, तुम्हारे इस प्रण का -
संकल्प तुम्हारा अनुपम है।
तुम सूर्योदय बन
सबके मन में गंध भरो
सूर्यास्तों की पीड़ाएँ हम तुमको देंगे।
यह पीड़ाओं का मार्ग चुना जो तुमने है
मानवता का उद्धार
उसी से सम्भव है।
हर्षित भविष्य की यही भूमिका होती है।

हैं नहीं तुम्हारी शक्ति शस्त्र -
मन का संकल्प
तुम्हारी है वास्तविक शक्ति:
वह सदा बढ़े!
शाश्वत बलिदानों का संकल्प तुम्हारा हो।

[आवाज़ दूर तक गूँजती चली जाती है। एकलव्य के मन में गूँज भर जाती है उस स्वस्तिवाचन की। उसके चेहरे पर एक स्वर्गिक आभा छा जाती है। सामने द्रोण की मूर्ति पर उसकी दृष्टि जाती है। वह नमन की मुद्रा में मूर्ति के सामने झुक जाता है]