दृश्य : पाँच / कुमार रवींद्र
[दृश्य वही। दो दिन उपरांत। सायं से कुछ समय पहले। द्रोण की मूर्ति के सम्मुख झुक हुआ एकलव्य। दृश्य स्थिर चित्रवत। वन से समूहगान का स्वर उठता है]
समूहगान: यह दिन
अभिशप्त अँगूठे का
खंडित आस्थाओं का
यह दिन कठोर कर्मों का
यह दिन उदार होने का
यह दिन
अपूर्ण सपनों की पीड़ाओं का
यह दिन अद्भुत घटनाओं का।
होंगे जब नंगे सत्य
वही दिन है यह
अनहोन होंगे कृत्य
वही दिन है यह।
यह क्षण वह
जब पीड़ाओं की जय होगी
हारेंगी वे
पर वास्तव में जीतेंगी
सूर्यास्तों की पीठिका अनोखी होगी
जिस पर सूर्योदय होंगे
किरणें होंगी।
आते अनुभवी क्षितिज हैं
अपराधी-से
प्राराम्भों में इतियों के संवादों-से
यह कुटिल क्षणों का दिन
जब पूरा होगा
मानवता का व्यक्तित्त्व अधूरा होगा -
पर वही बनेगा पृष्ठभूमि
आगत का
स्वप्निल जिज्ञासाओं के स्वागत का।
है अद्भुत यह क्षण
दुःख की मीमांसा का -
जब तन हताश होंगे
पर मन जीतेंगे।
यह एकलव्य अंतिम सूर्यास्त बनेगा
शाश्वत सूर्योदय के भविष्य वह देगा\
[अंतिम पंक्ति थोड़ी देर तक गूँजती रहती है, फिर शान्त हो जाती है। वही मृगशावक तेजी से भागता हुआ आता है। उसके साथ ही निकट आते हुए पाँवों की आहट भी। समूहगान का स्वर फिर उठता है]
समूहगान: यह गूँज
हवाओं में
बढ़ते आतंकों की
या नीड़ों में सिमटे
आशंकित पंखों की -
हैं उसी सूर्य की
जो बलिदान माँगता है।
[यह पंक्ति भी गूँजती है। एकलव्य मृगशावक के आने से सचेत हो चुका है। वह भी पांवों की आहट सुनता है। लगता है जैसे पहचानने का यत्न कर रहा हो। उसके मुँह पर अपार शान्ति का भाव है, एक पवित्र आभा है। उसकी आँखों में सात्त्विक सौहार्द्र और तेज है। पहले कुछ सैनिक और सेवक प्रवेश करते हैं। उनके पीछे कौरव-पाण्डव कुमारों से घिरे गुरु द्रोणाचार्य प्रवेश करते हैं। एकलव्य गुरु द्रोण के स्वागत के लिए कुटी से आगे बढ़ आता है। थोड़ी दूर पर ही धरती पर लेटकर साष्टांग दंडवत करता है। आचार्य उसे देखते हैं, मर्माहत होते हैं। एकलव्य भागकर कुटी में जाता है। आचार्य के चरणों में पुष्प बिखेरकर फिर नमन करता है। आचार्य आश्रम की स्वच्छता और शान्ति से प्रभावित दिखते हैं। एक आदर्श ऋषिपीठ की-सी व्यवस्था एवं पावनता से वे अभिभूत लगते हैं। एकलव्य उन्हें नमन करते हुए कहता है]
एकलव्य: मैं धन्य हुआ!
गुरुवर हैं स्वयं पधारे -
कैसा सौभाग्य अचानक है यह अनाहूत।
आभारी हूँ, प्रभु!
कृपा आपकी पाकर यह।
है पूर्णकाम यह एकलव्य -
आकार लिया
मेरे पुण्यों ने स्वयं आज।
मुझको मस्तक पर
चरणधूलि रखने दें, प्रभु!
[द्रोण के चरणों के पास की धूल मुट्ठी में भरकर मस्तक पर चढ़ाता है। भाव-विभोर होकर बार-बार वन्दना करता है। एकलव्य के इस रूप को देखकर द्रोण भी भावों के प्रवाह में बहने लगते हैं]
द्रोण(स्वगत): यह भील धन्य!
है आस्था इसकी धन्य
और इसका धीरज!
यह है पवित्र यज्ञभूमि-सा।
जलती है पावन अग्नि हृदय में
इसके जो
इसके मुख पर यह कान्ति
उसी की फैली है -
ऋषिपुत्रों-सा यह दमक रहा।
यह आश्रम कैसा है पवित्र!
है परम शान्ति -
पत्ते-पत्ते से स्नेह झर रहा हो जैसे।
यह युवा द्रोण की
मधुर कल्पना-सा सुन्दर
परिवेश अनोखा जैसे कोई देवलोक।
यह एक शिष्य पाकर ही द्रोण सुखी होता।
पर नहीं...
नियति को था स्वीकार और कुछ ही।
बेटे की आर्त्त पुकार
दूध के लिए
द्रोण सह नहीं सका।
हो गया सदा को कुरुसत्ता से वह बन्धित।
आदर्शों की हत्या कर दी
बन गया अर्थ का दास
बेच दीं आस्थाएँ
मन घुटा...
किन्तु तन विवश रहा।
इस एकलव्य को अस्वीकारा था मैंने।
यह बन मन का स्वीकार
खड़ा मेरे सम्मुख -
मेरी आस्था-मेरे सपनों का शुद्ध रूप।
यह क्षण मेरे निर्णय का है।
मन मेरा इसके प्रति ममत्व से भरा हुआ
स्वीकार हो रहा है
इस sundar सपने का
पर तन...
कुरुसत्ता से बन्धित
भयभीत और आतंकित है -
असमंजस की कैसी यह है स्थिति।
[कौरवों और पाण्डवों की ओर दृष्टि डालते हैं - सभी के चेहरे लटके हुए। अर्जुन का चेहरा बिलकुल बुझा हुआ। इन दो दिनों में लगता है थक गया, ढल गया है वह। द्रोण दुविधा में कभी पैरों में प्रणत एकलव्य को देखते हैं, कभी अर्जुन की निष्प्रभ आकृति को। उनका विचार चलता रहता है]
पर अब यह ऊहापोह व्यर्थ है -
निर्णय मेरा है नहीं
देह का है मेरी।
वर्षों पहले का
विवश दुराग्रह साँसों का
अब वही सत्य
मेरी असमर्थ भुजाओं का।
मैं दास अर्थ का -
निर्णय भी उसका ही है।
वह द्रोण और था जिसने सपने देखे थे।
[एकलव्य को सम्बोधित करते हैं। मन में अन्तर्विरोध, पर स्वर ठंडा कठोर]
कैसा प्रपंच यह, भीलपुत्र!
मुझको तू अपना गुरु कहता
पर मैंने तुझको
शिष्य बनाया कभी नहीं -
तू कैसे कहता अपने को मेरा सेवक?
(स्वगत) प्रिय एकलव्य!
तू कर दे अस्वीकार मुझे -
मेरे छल का उत्तर है तेरे पास यही।
मैं गुरु होने के योग्य नहीं।
तू कह दे यही
और मैं बच जाऊँगा।
[द्रोणके मौन मुख की ओर एकलव्य नेहभरी दृष्टि डालता है। फिर मुस्कराते हुए कहता है]
एकलव्य: यह अस्वीकार आपका
गुरुवर, शिरोधार्य।
मैं जान गया हूँ छल प्रभु का -
ऊपर से अस्वीकार किये
मन से मुझको स्वीकारा है।
मेरे मन में संकल्प
और बाँहों में बनकर स्फूर्ति
प्रभु ने मेरे लक्ष्यों को सदा सँवारा है।
जब-जब मैंने त्रुटियाँ की हैं
प्रभु ने ही उन्हें सुधारा है।
इस धनुर्यज्ञ में
आहुतियाँ देने का मेरा प्रण
हर आपने ही होता बन पूर्ण किया।
यह आश्रम भी प्रभु का ही है
मैं हूँ केवल इसका सेवक।
[मूर्ति की ओर इंगित करता है]
यह आप यहाँ बैठे, गुरुवर
इस आश्रम के कुलगुरु महान।
[द्रोण की दृष्टि मूर्ति की ओर जाती है। सभी कौरव-पाण्डव भी उस ओर देखते हैं। द्रोण क्षण भर के लिए विह्वल-विचलित होते हैं, किन्तु तुरन्त मन को रोककर कठोर हो जाते हैं]
द्रोण (स्वगत): यह सत्य तुम्हारा, एकलव्य
है बहुत क्रूर।
तुम नहीं जानते
द्रोण हुआ कितना बेबस।
वह भ्रष्ट और असमर्थ
बँधा निज स्वार्थों से -
वह वहन नहीं कर पायेगा
यह सत्य तुम्हारा निर्विकार।
(प्रकट में) तो एकलव्य!
मैं ही हूँ तेरा गुरु
जिससे...
तूने यह शिक्षा पायी है -
गौरवान्वित हूँ
तू है महान।
तुझको आता
है धनुर्वेद में जो कुछ भी
तेरी शिक्षा हो चुकी पूर्ण
मेरे शिक्षण-निर्देशन में तू सिद्ध हुआ।
है तुझे ज्ञात क्या
आर्यों की यह परम्परा -
शिक्षा पूरी हो जाने पर
देता है शिष्य दक्षिणा गुरु को मुँहमाँगी।
यह प्रथा निभायेगा क्या तू?
वैसे तू आर्य नहीं
इससे तुझ पर यह बंधन नहीं
कि प्रथा निभाए तू।
[एकलव्य के मुख पर उल्लास का भाव है। अन्तिम वाक्य से वह हतप्रभ होता है, पर वह शान्त रहता है। उल्लास के साथ वह द्रोण को उत्तर देता है]
एकलव्य: मैं आर्य नहीं, यह सत्य
किन्तु हैं आर्य आप
मैं शिष्य आपका यह सम्बन्ध निभाऊँगा।
आदेश करें...
मेरी सामर्थ्य समर्पित है श्रीचरणों में -
यह देह-आत्मा...
सब कुछ प्रभु का ही तो है।
[द्रोण के मन में फिर दुविधा जागती है। किन्तु वे मन को द्रवित होने से रोकते हैं]
द्रोण (स्वगत): एकलव्य, वत्स!
मैं कुरुकुल का आचार्य
माँगता हूँ तुझसे
अपनी सीमाओं का रक्षण -
मेरे स्वार्थों की राजनीति में
तेरी आहुति आवश्यक।
(प्रकट में) दे मुझे दाहिना अपना प्रबल अँगूठा यह
जिससे प्रत्यन्चा साध
असम्भव रचता तू।
है मेरा यह आदेश कि तू इसका उपयोग न कर।
[द्रोण की बात पूरी होते-होते एकलव्य बाँये हाथ से अपनी कमर में खुंसी कटार निकाल लेता है और जब तक द्रोण कुछ सोचें-समझें, अपने दाहिने अँगूठे को जड़ से काट देता है। खून का फव्वारा छूटता है, किन्तु एकलव्य निस्पृह-तटस्थ रक्त से भीगे अँगूठे को अंजलि में लेकर गुरु को समर्पित करता है। द्रोण इस दृश्य से विचलित-आतंकित-निष्प्रभ हो पल भर के लिए अपना मुँह फेर लेते हैं। सभी राजकुमार भी आतंकित दीखते हैं। अर्जुन के चेहरे पर पश्चात्ताप-ममता का मिला-जुला भाव आता है। एकलव्य प्रफुल्ल मुद्रा में अंजलि में तड़पते अँगूठे को सम्बोधित करते हुए कहता है]
एकलव्य: तू धन्य हुआ!
गुरु ने स्वीकार किया तुझको
तू धन्य हुआ!
आचार्यश्रेष्ठ!
संकुचित न हों...
स्वीकार करें यह तुच्छ भेंट\
संकोच कर रहे थे कहने में आप व्यर्थ -
यह देय आपका मिले आपको
यही उचित।
इसकी थी सिद्धि आपकी दी
यह सिद्धि अधूरी रह जाती
यदि आप इसे स्वीकार न करते
यों, भगवन!
प्रभु!
अब सहर्ष आशीष इसे दें
बने अमर!
पीड़ा के आख्यानों में इसका नाम न हो -
यह है उल्लासों का प्रतीक।
बलिदानों का है
शुभ मुहूर्त्त यह!
दीक्षित हूँ मैं सपनों से -
उस नयी मनुजता के आदर्शों से
जो सूर्यास्तों की इस बेला में पलता है।
यह कटा अँगूठा व्यर्थ न हो
असमर्थ न हो -
वरदान बने अगले युग का।
पीड़ाओं के युग का हो अन्त...
इसी से, प्रभु!
अन्यायों से संकुचित न हो कोई आगे।
[कहते हुए द्रोण के चरणों में समर्पित हो जाता है। कटे अँगूठे का रक्त द्रोण के चरणों पर एक रेखा-सी बनाता है। आकाश में रक्ताभ किरणें फ़ैल रहीं हैं। सारा दृश्य उससे नहाया-हुआ लगता है। सूर्य का रक्ताभ बिम्ब द्रोण की प्रतिमा के पीछे ढलता-हुआ एक कटे अँगूठे की छायाकृति बनाता है। एक महाकार अँगूठे की परछाईं द्रोण और उनके चरणों में समर्पित एकलव्य को घेर लेती है। द्रोण एकलव्य को बाँहों में भर लेते हैं, दुलराते हुए बिलखते हैं। पीछे से वनदेवियों का समूहगान गूँजता है]
समूहगान: यह कटे अँगूठे का इतिहास पुराना है।
सदियों से मानव छला गया है
ऐसे ही।
यह है प्रतीक
अन्यायों का
अनुदार संकुचित नियमों का
खंडित बिखरी आस्थाओं का।
मानव ने जिनको मान्य किया
वे सत्य अधूरे हैं सारे -
हैं विवश बहुत
मानव के सारे ही सपने।
पहले भी द्रोण हुए हैं
आगे भी होंगे।
विकलांग सूर्य के पल अनेक होंगे फिर भी।
पर यह पीड़ा का पर्व
अलौकिक है अतीव -
हो गया शिष्य सार्थक अपने बलिदानों से।
जब-जब होगा सूर्यास्त
हवाएँ होंगी दुख
इस कटे अँगूठे की पीड़ा से व्याकुल हो।
रक्ताभ झील में सूर्य नहायेगा हर दिन।
पर वहीं पलेगा सुख
जिसमें...
नीरव आकाश सँजोएँगे
तारों के जंगल में छिपकर
सूर्योदय के अभिनव सपने।
यह एकलव्य का अमरगीत
सारे सूर्यास्तों में होगा
सूर्योदय की आस्था से...
अपलक भरा हुआ।
[स्वर अन्तिम वाक्य को दोहराता जाता है, गूँजता जाता है। गहराते अंधकार में वृक्षों की आकृतियों के बीच द्रोण और एकलव्य की आकृतियाँ भी सम्मिलित हो जाती हैं]