भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दृष्टि-भेद / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
Kavita Kosh से
एक मेरे मित्र कहते जिंदगी से थक चुका हूँ,
अनुभवों की चचटचटाती आग में भी पक चुका हूँ,
लभ्य सारे खाद्य खाकर,पेय पीकर छक चुका हूँ,
आ रही है रात काली घनघटा निर्द्वन्द्व छाई।
काम से विश्राम लेने की है मन में बात आई॥
एक मैं हूँ सोचता हूँ देह में भरपूर बल है,
आँख में है ज्योति, मन उत्साह से अब भी चपल है,
बुद्धि में अब भी समस्या का सफल अति सरल हल है,
मिट रही है भूख, चाहे मिल न पाती है मलाई।
काम से विश्राम लेने की न मन में बात आई॥