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दृष्टि से ओझल रहा, पर दृष्टि से बाहर न था / राजेन्द्र वर्मा

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दृष्टि से ओझल रहा, पर दृष्टि से बाहर न था,
मेरे भीतर बैठ वह लिखता रहा मेरी कथा।

वह स्वयं स्वामी मगर उसमें न किंचित स्वाम्य था,
श्रम-परिश्रम-स्वेद से लिखता रहा अपनी कथा।

खिलखिलाती धूप हो या चाँदनी खिलती हुई,
रात-दिन वैधव्य धारे श्वेत साड़ी-सी व्यथा।

सरसिजों के हेतु तुमने पंक से सर भर दिये,
पंक से पंकज खिलाते, तब तो कुछ उद्योग था!

झूठ की अट्टालिका में आप रहिए शौक़ से,
सत्य के छप्पर-तले रहने की है अपनी प्रथा।

श्रेष्ठता यदि आचरित होती नहीं, तो व्यर्थ है,
नाश रावण का हुआ, यद्यपि वह कुल का श्रेष्ठ था।