दृष्टि से दृष्टिकोण तक / बाल गंगाधर 'बागी'
हमारी बेबस नज़रों से, कोई झांकता नहीं
विरान बस्तियों को क्यों कोई जानता नहीं?
मक्खियों की जंग में, कुपोषित आंखें रोती हैं
जहाँ अंतड़ियों के दर्द को, अलाप बांचता1 नहीं
आंख की लाली हल्दी की तरह होती है
भूख-प्यास में तड़पकर जर्दी होती है
चूल्हे की आग जलती ज्वाला बनती है
आंसू में ढलके जो मशाल जैसी हे
तपती धूप में शरीर कोयल-सा हो जाता है
लेकिन प्यार के दो बोल, बोल पाते नहीं
फावड़े कुदाल उनके सीने में गढ़ जाते हैं
जब कांपते हाथ ज़मीन खोद पाते नहीं
भुखमरी आती है क्यों, उनके घर जो मज़बूर हैं?
हमेशा जिन बांहों में, मेहनत का नशा चूर है
तड़पते बच्चे व बीबी की सूखी आंखों में
रोटी की जगह बस उड़ती, धूल ही धूल है?
वे मरते हैं घुट-घुट, कुपोषित काया के चलते
बोझ बीमारी और जाति के, बंधन में जकड़
उन्हें मज़दूरी के सिवा, कुछ भी नहीं मिलता
इसे भी कर नहीं पाते, जब है बल खत्म होता