देखकर दहशत निगाहों की, ज़ुबाँ बेचैन है
फिर सुलगने को कोई इक दास्ताँ बेचैन है
स्याह रातों के सलीके दिन को क्यूँ भाने लगे ?
सोचकर गुम-सुम है धरती, आस्माँ बेचैन है
कागज़ों पर हो गये सारे खुलासे ही, मगर
कुछ तो है जो हाशियों के दरमियाँ बेचैन है
जब से साजिश में समन्दर की, हवा शामिल हुई
किश्ती है चुपचाप सी औ' बादबाँ बेचैन है
तीर तो जाकर निशाने पर लगा था ठीक से
मामला आख़िर हुआ क्या, क्यूँ कमाँ बेचैन है
भेद जब सरगोशियों का खुल के आया सामने
शोर वो उट्ठा है, अपना हुक्मराँ बेचैन है
हिज़्र के मौसम की कुछ मत पूछिये उफ़ दास्ताँ
मैं यहाँ बेताब हूँ तो वो वहाँ बेचैन है
(अलाव, संयुक्तांक मई-अगस्त 2015, समकालीन ग़ज़ल विशेषांक)