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देखता हूं मृत्यु / सुनील गंगोपाध्याय
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मृत्यु के पास मैं नहीं गया था, एक बार भी
फिर भी वह क्यों छद्मवेश में
बार-बार दिखाई देती है!
क्या यह निमन्त्रण है.... क्या यह सामाजिक लघु-आवागमनर्षोर्षो
अकस्मात उसकी चिट्ठी मिलती है
अहंकार विनम्र हो जाता है
जैसे देखता हूं नदी किनारे एक स्त्री
बाल बिखरा कर खड़ी है
पहचान लिए जाते हैं शरीरी संकेत
वैसे ही हवा में उड़ती है नश्वरता
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा
जब भी कुछ सुन्दर देखता हूं
जैसे कि भोर की बारिश
अथवा बरामदे के लघु-पाप
अथवा स्नेह की तरह शब्दहीन फूल खिले रहते हैं
देखता हूं मृत्यु, देखता हूं वही चिट्ठी का लेखक है
अहंकार विनम्र हो जाता है
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा!!
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी