भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखते रहते हैं चलते हुए हम / राज़िक़ अंसारी
Kavita Kosh से
देखते रहते हैं चलते हुए हम
रंग दुनिया के बदलते हुए हम
बात करते हैं न जाने क्या क्या
लान में ख़ुद से टहलते हुए हम
सीख जाएं न कहीं मक्कारी
आपके साथ में चलते हुए हम
एक इक फ़र्द को देखा ही किए
जाने क्यों घर से निकलते हुए हम
दूर ख़ूद से ही निकल जाएं आज
अपने साए को कुचलते हुए हम