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देखना, अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्तानें / सरोज सिंह
Kavita Kosh से
परिंदे और परदेसियों के
दूर वतन जाने पर
दुआओं की गठरी बाँध
घर की चौखट पर
बैठी वजूद का
मिटटी होना लाज़मी होता
आँखों के बहते आंसू
उस मिटटी को सींचते रहते
जिनमे... गाहे-बगाहे
उम्मीदों के सब्ज़े उग आते
लोकगीतों की दास्ताने
उनसे ही आबाद थी
मगर अब...हमवतन ही
दुआओं की छतरी लिए
सुबह के निकले परिंदे औ बाशिंदे
वाजिब वक़्त...
जब घर को लौट नहीं आते
बजाये आने के उनके
बजती है फोन की घंटी
तब...चौखट पर
अपसकुन बुहारती
बेसब्र आँखे पथरा जाती हैं
अब उन आँखों से
अश्क तर नहीं होते
उन पथराई वजूदों पर
कोई सब्ज़ा भी नहीं उगता
बस इक आह: होती है
के, कोई तो आये
और उन्हें मिटटी कर दे
देखना...
अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्तानें