देखना / कुमार सुरेश
करके अपने आग्रहों से
संलिप्त
जब किसी सच को देखता हूँ
आधा ही देखता हूँ
मेरा-उसका
पुरूष-स्त्री
बच्चे-जवान-बूढ़े का अलग-अलग सच
देखना संभव नहीं हुआ कभी
जब किसी झूठ को देखता हूँ
आधा ही देखता हूँ
उतना ही जितना
हो मुझे सुविधाजनक
किसी घटना को देखता हूँ
उसे अच्छा या बुरा देखता हूँ
नही देखता कि कोई घटना अपनी शुद्धता में
अच्छी या बुरी नहीं होती
व्यक्तियों में उनकी
जाति, रंग, देश और धर्म देखता हूँ
मक्कारी, अहंकार और आदतें देखता हूँ
उनके आँसू और पीड़ा नहीं दिखते मुझे
ऐसा आज तक नहीं हुआ कि मैंने
किसी स्त्री को स्त्री से पहले व्यक्ति देखा हो
किसी गैर धर्मी का धर्म देखने से पहले
उसका मनुष्य देखा हो
सावन के अंधे की तरह
धर्म देखता हूँ उतना ही
जितना सीखा जन्म के इत्तेफाक से
देखता हूँ पूरनमासी का चाँद आधा ही
चाँद का दूसरा सिरा
नज़र से दूर रहता है हमेशा
हथेली पर रेत का एक कण भी
आधा ही आता है नज़र
मेरा अतिक्रमण करती
मुझ से अलग रही आई
देह की अपनी पृथक भाषा
मन की भाषाएँ अनगिनत
अपठनीय भी
धरती देखता हूँ एक अंश भर
आसमान एक टुकड़ा
नक्शे में देखता हूँ
राजनीतिक सीमाएँ
कितने ही आग्रह, दुराग्रह
पसंद-नापसंद और पूर्वाग्रह
कभी-कभी वह नहीं देखता
जो दिखाई देता है सामने
कल्पना की आँख से देख लेता हूँ वह
जो खुली आँख से नहीं दिखता
मनुष्य की गरिमा से परिपूर्ण
आधा-अधूरा हूँ में
हमेशा पूरा होने की कोशिश करता हुआ।