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देखना / छवि निगम
Kavita Kosh से
इस अंधेरों के शहर में
अबकि एक चाँद बो दूँगी,
चांदनी के पत्तों पर
पाँव रखते रखते
तुम तक पहुंचूँगी...
और खींच उतारूंगी ।
रख दूँगी तुमको
चीकट सुबकते गालों पे
भिगो दूँगी तुम्हें
उन गालों पर खिंची
मटमैली अधगीली लकीर में,
अटका दूँगी
किसी खाली उधड़ी जेब की
नाउम्मीद सीवन में
टाँग दूँगी किसी
बेतहाशा भीड़ के बीचोंबीच।
फिर
चीखके देखना ज़रा तुम
किसी बेआवाज़ तमाचे से
तड़पना
बेबस इंतज़ार की आखों में
घिसटना
टूटे तले की चप्पल में उलझ
भटकते रहना
एक बेबस माँ के लिखे बैरंग ख़त में।
ए ईश्वर या ख़ुदा
ऐसा करना
अबकि तुम
पीड़ा का सही अर्थ समझना
अबकि तुम
औरत की देह ले जन्मना ।
फिर बताना
कि तब
ख़ुदा कौन
कैसा दिखता है तुम्हें?