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देखने का बोलना / लीलाधर जगूड़ी
Kavita Kosh से
आँखों के देखे हुए को बताने के लिए
ज़ुबान को खोलने पड़ते हैं भाषा के ताले
देखना भी बोलने लगता है
अनुभूति का यह खेल अजब है
बातों ही बातों में पंक्ति दर पंक्ति बन जाती है
शब्दों की
कई-कई आँखें दिखने लगती हैं
कई-कई निगाहों के साथ ।