देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना / सलीम अहमद
देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना
दूसरी शर्त है फिर आँख का पत्थर होना
वहाँ दीवार उठा दी मिरे मेमारों ने
घर के नक़्शे में मुक़र्रर था जहाँ दर होना
मुझ को देखा तो फ़लक-ज़ाद रफ़ीकों ने कहा
इस सितारे का मुक़द्दर है ज़मीं पर होना
बाग़ में ये नई साज़िश है कि साबित हो जाए
बर्ग-ए-गुल का ख़स-ओ-ख़ाशाक से कम-तर होना
मैं भी बन जाऊँगा फिर सहर-ए-हवा से कश्ती
रात आ जाए तो फिर तुम भी समंदर होना
वो मिरा गर्द की मानिंद हवा में उड़ना
फिर उस गर्द से पैदा मिरा लश्कर होना
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना
कैसा गिर्दाब था वो तर्क-ए-तअल्लुक़ तेरा
काम आया न मिरे मेरा शनावर होना
तुम तो दुश्मन भी नहीं हो कि ज़रूरी है ‘सलीम’
मेरे दुश्मन के लिए मेरे बराबर होना