भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देखा तुमने रोते-रोते रात गई / विनोद तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखा तुमने रोते-रोते रात गई
आँख खोल कर सोते-सोते रात गई

दिन भर फूल उगाए ख़ून पसीना कर
स्वप्न में पत्थर ढोते-ढोते रात गई

चार दिनों में दामन का क्या हाल हुआ
दाग़ न छूटे धोते-धोते रात गई

शायद अगला दिन लाएगा मीठे फल
हर पल ख़ुशियाँ बोते-बोते रात गई

जीत न कोई जश्न बदन टूटा -टूटा
सपना पूरा होते-होते रात गई