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देखा न तलुवों से लहू बहता चढ़ान पर / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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देखा न तलुवों से लहू बहता चढ़ान पर
मंज़िल तलक हंसकर रखा काबू थकान पर।
मदहोश सबको कर गया अंदाज़े-गुफ्तगू
क़ुर्बान महफ़िल हो गई शीरीं ज़बान पर।
घबरा गया ये सोच कर , इमदाद के लिए
आवाज़ दे दी आज उफ़! किसके मकान पर।
ये अज़्म था उसका कि जो मंज़िल उसे मिली
हर पल चढ़ाये तीर को रक्खा कमान पर।
बेख़ौफ़ अपने इश्क़ का इज़हार कर गया
हैरान सारी बज़्म थी तर्ज़े-बयान पर।
हर हाल में रक्खा बचा ज़िंदा ज़मीर को
बट्टा नहीं लगने दिया कुनबे की शान पर।
सच्ची खुशी के वास्ते 'विश्वास' वो चला
घर बार सारा छोड़ इक दिल की अज़ान पर।